अपने सुपर सपूतों से।
कहते थे सोने की चिड़िया
क्या यह अपना देश वही?कदम कदम रोटी होती थी
हर पग पर था नीर यहीं।
क्षीर नदी बहती थी तब,अब
बूँदें दिखतीं शेष नहीं।
किसने लूटा वसुधा को इन
काली खल करतूतों से।
जीवन से भरपूर कभी?
अत्याचारों की आँधी में
खो बैठी है नूर यही।
वेधित हुई है विपदाओं से
तप तप कर तंदूर हुई।
प्रलयंकारी दूतों से?
उत्तर बगलें झाँक रहे।
बहसों की बारिश में भीगे
सभी सूरमा हाँफ रहे।
चित पट में खोए हल सारे
जनता के मन काँप रहे।
कुदरत को इन पूतों से?
-कल्पना रामानी
5 comments:
कल्पना दी बहुत ही अच्छा लिखा है,पूरे गीत में कहीं भी न गति भंग होती है ना ही यति, अंतिम पैरा तो बेहतरीन है 'हथगोले से प्रश्न अनेकों/उत्तर बगलें झाँक रहे' ये पंक्तियां अमूल्य है एवं किसी भी कवि की चाहत होती है ऐसा लिखने का, सादर
बहुत खूब कल्पना जी .... बहुत बधाई. आपके ब्लॉग का आज ही पता चला. मुझे आपकी हर विधा की रचना पसंद है.
सपूतों को समर्पित सार्थक रचना बधाई
वाह.... वाह....
बधाई कल्पना जी ..
निरंतर अच्छा लिखती जा रही है आपकी लेखनी...
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