बदरा गरजे, बिजुरी चमकी।
घनघोर गिरी पहली बरखा।
तरसी धरती फिर तृप्त हुई।
अकुलाहट मनकी लुप्त हुई।
नदियाँ, नद, सागर झूम उठे।
गिरते जल के लब चूम उठे।
विहगों पर नूतन जोश दिखा।
चितचोर गिरी पहली बरखा।
दिन में दिवसेश्वर अस्त हुए।
जन, पर्व मनाकर मस्त हुए।
कब शाम ढली कब रात हुई।
कब दीप जले कब प्रात हुई।
सब भूल गए बस याद रखा।
पुरजोर गिरी पहली बरखा।
खुश होकर खेत खिले जग के।
बिसरे शिकवे व गिले सब के।
जब बारिश ने नवगीत गढ़े।
तब ढोलक पे कर थाप पड़े।
बरसे बन मेघ सहाय सखा।
चहुंओर गिरी पहली बरखा।
कल्पना रामानी
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पुनः पधारिए
आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।
धन्यवाद सहित
--कल्पना रामानी
1 comment:
वाह वर्षा ऋतू के आगमन का कितना ही सुन्दर एवं लालित्य पूर्ण वर्णन किया है .. मन मुग्ध हो गया..
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