कागा रे!
मुंडेर छोड़ दे
मत मेहमान पुकार।
चढ़ी न चौके दाल पनीली।
शेष नहीं मुट्ठी भर आटा
औंधे सोए तवा
पतीली।
कुछ कर सोच-विचार।
एक कोठरी दस बाशिंदे
मैला बिस्तर, चिंदे चिंदे।
पलक बंद नहिं होती पल भर।
चर्म चाटते मुए
पतंगे।
खटमल बना
कतार।
काँव काँव की टेर छोड़ दे।
इस घर से यह चोंच मोड़ दे।
नहीं चाहती द्वारे आकार
आगत अपने पाँव
मोड़ दे।
दीनों के संस्कार।
-कल्पना रामानी
1 comment:
चूल्हा ठंडा, लकड़ी सीली,
चढ़ी न चौके दाल पनीली।
शेष नहीं मुट्ठी भर आटा,
औंधे सोए तवा पतीली।
क्या खाएगा प्रियम पाहुना,
कुछ तो करो विचार।......................
काग सयाने,तुम क्या जानो।
दीनों के संस्कार.............बहुत मार्मिक .........सुंदर गीत बधाई कल्पना जी
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