दिनकर दीदे फाड़ तक रहा
संध्या रानी जल्दी आओ
मैं चरवाहा भटका दिन-भर
लेकिन छाँव न पाई पिन भर
आफताब यह बड़ा
संगदिल
दूर नहीं हटता है छिन-भर
हे देवी! है विनती तुमसे
निज छतरी में हमें छिपाओ
चाट गया जल, जलता तापक
घास चर गईं किरणें
घातक
जान हथेली लिए फिरेंगे
भूखे-प्यासे ढोर कहाँ तक?
कान बंद मत करो सुकन्या!
मानो बात रहम दिखलाओ
दहक रहे हैं दिन भट्टी
बन
भून रहे बेखता
प्राण-तन
खाल खींच खुशहाल हो
रही
रह-रह धूप हठीली
बैरन
ऐसे में हे साँझ-सयानी!
किसे पुकारूँ तुम्हीं
बताओ
-कल्पना रामानी