रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Thursday 23 May 2013

मद्य निषेध सजा पन्नों पर



चीखें, रुदन, कराहें, आहें
घुटे हुए चौखट के अंदर
हावी है बोतल शराब की
कितना हृदय विदारक मंजर!

गृहस्वामी का धर्म यही है
रोज़ रात का कर्म यही है
करे दिहाड़ी, जो कुछ पाए
वो दारू की भेंट चढ़ाए

हलक तृप्त है, मगर हो चुका
जीवन ज्यों वीराना बंजर

भूखे बच्चे, गृहिणी पीड़ित
घर मृतपाय, मगर मय जीवित
बर्तन भाँडे खा गई हाला
विहँस रहा है केवल प्याला

हर चेहरे पर लटक रहा है
अनजाने से भय का खंजर

काँप रहे हैं दर- दीवारें
कौन सुनेगा किसे पुकारें
जनता के हित कहाँ हुआ कुछ
नेता गण जीतें या हारें

हड़तालें हुईं, जाम लगे पर
कुछ दिन चलकर थमे बवंडर

दीन देश की यही त्रासदी
नारों में ही गई इक सदी
मद्यनिषेध सजा पन्नों पर
कलमें रचती रहीं शतपदी

बाहर बाहर लिखा लाभ-शुभ 
झाँके कौन घरों के अंदर।

-कल्पना रामानी  










2 comments:

Manju Mishra said...



अद्भुत !

कल्पना जी कितना सच्चा और सटीक चित्रण है …. एक एक शब्द एक एक पंक्ति मानो ह्रदय को झकझोरती हुयी सी ….

surenderpal vaidya said...

बहुत सार्थक नवगीत।

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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