हौसलों के पंख - कल्पना रामानी
भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का
महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि
नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है।
गीत पारम्परिकता का पोषक होता
है तो नवगीत नव्यता को महत्व
देता है। गीत में छंद योजना को
वरीयता है तो नवगीत में गेयता
को महत्व मिलता है।' उक्त दो
बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार
कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत
संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और
और उस पर लिखना दिलचस्प है।
महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि
नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है।
गीत पारम्परिकता का पोषक होता
है तो नवगीत नव्यता को महत्व
देता है। गीत में छंद योजना को
वरीयता है तो नवगीत में गेयता
को महत्व मिलता है।' उक्त दो
बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार
कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत
संग्रह 'हौसलों के पंख' को पढ़ना और
और उस पर लिखना दिलचस्प है।
कल्पना जी ने लंबे समय से आदतन
लेखन किया है। वे उस सामान्य
वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके
लिए साहित्य रचा जाता है और जो
साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता
है। आज के सामाजिक परिवेश और
विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं ने इसे हाशिये पर रखना
आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती,
आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के
इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस
तक सीमित नहीं रह सकता।
लेखन किया है। वे उस सामान्य
वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके
लिए साहित्य रचा जाता है और जो
साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता
है। आज के सामाजिक परिवेश और
विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं ने इसे हाशिये पर रखना
आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती,
आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के
इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस
तक सीमित नहीं रह सकता।
कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसाह में विचरण नहीं
कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं।
कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं।
जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित
एकाकीपनसे जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात
उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ
साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य
कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी
वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों
से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं। प्रतिष्ठित नवगीतकार
यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र
में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।'
कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं।
कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं।
जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित
एकाकीपनसे जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात
उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ
साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य
कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी
वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों
से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं। प्रतिष्ठित नवगीतकार
यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि 'रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र
में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।'
डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा
छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति
को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के
साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द
(संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित,
प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड,
मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि),
उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू, तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा,
नादाँ, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबाँ, इंक़लाब,
फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि)
के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटा, जुगाड़, फूल
बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।
छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति
को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के
साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द
(संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित,
प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड,
मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि),
उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू, तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा,
नादाँ, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबाँ, इंक़लाब,
फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि)
के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटा, जुगाड़, फूल
बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।
इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग
वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन,
फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार,
पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में
अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने
छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है।
इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त
तरुवर तृण, सरु, सरिता, सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार,
वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना,
सचेतना सुभावना सुकामना, मृदु महक माधुरी, सात
सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी,
कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित,
कोयलिया की कूक आदि।
वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन,
फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार,
पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में
अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने
छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है।
इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त
तरुवर तृण, सरु, सरिता, सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार,
वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना,
सचेतना सुभावना सुकामना, मृदु महक माधुरी, सात
सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी,
कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित,
कोयलिया की कूक आदि।
कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है:
जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादाँ, स्वत्व
स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महतों
का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी
तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल
पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों
का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर
प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं
जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादाँ, स्वत्व
स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महतों
का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी
तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल
पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों
का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर
प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं
कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन
देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों,
मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश),
पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए,
कहलाऊँ तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के
बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नों
पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में
बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि)
के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और
प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों
में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा,
संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।
देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों,
मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश),
पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए,
कहलाऊँ तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के
बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नों
पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में
बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि)
के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और
प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों
में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा,
संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।
पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं।
जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे
शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएँ?,
जन-जन का तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश
आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः
नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार,
पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ
मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता,
हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर,
भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर
पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियों जनित पीड़ा,
विषमता और टूटन को बिसर जाता है।
जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे
शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएँ?,
जन-जन का तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश
आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः
नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार,
पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ
मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता,
हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर,
भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर
पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियों जनित पीड़ा,
विषमता और टूटन को बिसर जाता है।
सारतः विवेच्य कृति जयघोष करती जिजीविषाओं का
तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की
उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी
जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए
इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित
करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के
निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन
कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट,
लगन और सृजन के लिये।
तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की
उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी
जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए
इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित
करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के
निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन
कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट,
लगन और सृजन के लिये।
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नवगीत संग्रह - हौसलों के पंख, रचनाकार- कल्पना रामानी,
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण
२०१३, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ ११२, समीक्षा लेखक- आचार्य संजीव सलिल
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण
२०१३, मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ ११२, समीक्षा लेखक- आचार्य संजीव सलिल
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1 comment:
बहुत रोचक और सारगर्भित समीक्षा..बधाई
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