पापा कहते हैं, मैं पढ़ लिख
जग में नाम कमाऊँ।
चौराहे पर सोच रहा मन
कौन दिशा में जाऊँ।
शिक्षक तो बन जाऊँ लेकिन
बात न ये आएगी रास।
कोरे ठेठ अँगूठों को भी
लोग कहेंगे कर दो पास।
हो गुमराह नई पीढ़ी वो
कैसे द्वार दिखाऊँ।
इंजीनियर बनूँ या डॉक्टर
पर है मन में प्रश्न वही।
रिश्वत बिना कहाँ बजती है
इस मारग पर भी तुरही।
स्वाभिमान को खोकर कैसे
खुद से नज़र मिलाऊँ।
बन किसान लूँ हाथ अगर हल
खाद-बीज होंगे भूगत।
ब्याज मूल की खातिर साहू
कर देगा ख़ासी दुर्गत।
दे न सकूँ मैं अगर निवाले
क्यों फिर वंश बढ़ाऊँ।
बनूँ राजनेता तो शायद
भूल चलूँ अपना चेहरा।
मक्कारी बाँधेगी मेरे
सिर पर एक नया सेहरा।
कैसे अपनी मातृभूमि का
मैं फिर कर्ज़ चुकाऊँ।
पापा मेरे, करें न चिंता
पूर्ण आपके होंगे ख्वाब।
बनूँ सिपाही इससे बढ़कर
भला कौनसा और सबाब।
मिटकर अपने संग आपका
नाम अमर कर जाऊँ।
-कल्पना रामानी
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