रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Tuesday 17 December 2019

बरस बीता कह गया


विदा होकर जाते-जाते
 बरस बीता कह गया
नवल तुम वो पूर्ण करना  
जो नहीं मुझसे हुआ

गगन बेशक छुआ लेकिन  
देश अनदेखा किया
लोग रोटी माँगते थे  
चाँद लाकर दे दिया

बूँद रक्षण कर पाया  
अमिय घट घटता गया  
होश आया  जब समय ने   
हाथ पकड़ा  चल  कहा

जंग तुम अब छेडना
इस देश के जंजाल से
 हों न दीवारें प्रताड़ित
मकड़ियों के जाल से

जड़ों को जकड़े दीमक
रूप निज विकराल से  
आस का नव सूर्य तुम हो   
मैं हुआ बुझता दिया 

बदल देना नियम सारे  
खत्म सब मतभेद हों
दफन केवल फाइलों में
वायदे ना कैद हों

मान्य होंगे दस्तखत तेरे  
तुम्हीं अब वैध हो   
तुम नई तारीख  मैं
जूना कैलेंडर अब हुआ

जश्न तो होते रहेंगे  
 युग बदलते जाएँगे
नव सजेंगे सुर्खियों में  
पुरातन खो जाएँगे

सब सुनेंगे मित्र  तुमको
सब तुम्हें ही गाएँगे  
आज तुम नवगीत हो
मैं गीत गुज़रा रह गया

-कल्पना रामानी

नया कैलेण्डर

सुगम-काल की अगम-आस में
मैंने भी फिर उसी कील पर
नया कैलेंडर
टाँग दिया।

अच्छे दिन कर पार भँवर को
तिर जाएँ यह हो सकता है।
वही चखेगा फल मीठे जो
श्रम बीजों को बो सकता है।   

तट पाने की चरम चाह में
मन नौका ने पाल तानकर
भरे जलधि को
लाँघ लिया।

दीप देखकर तूफां अपना
रुख बदले, यह नहीं असंभव।
घोर तिमिर से ही तो होता
बलशाली किरणों का उद्भव!  

कर्म-ज्योति का कजरा रचकर
नैन बसाए कुंभकर्ण का
टूक-टूक सर्वांग
किया।

छोड़ विगत का गीत, स्वयं को
आगत राग प्रभात सुनाया।
सरगम के सातों सुर साधे
सुप्त हृदय का भाव जगाया।

चीर दुखों का कुटिल कुहासा
उगे फ़लक पर सूर्य सुखों-
का, नए वर्ष से 
माँग लिया।

-कल्पना रामानी

विजय फलक पर

वर्तमान पर करके अपने
अहम दस्तखत
नए साल ने बीते के
दुख को दफनाया।

जिन काँटों को व्यर्थ 
समझते रहे मुकुटधर
और काट कर गए 
फेंकते नित घूरे पर

आज उन्होंने एक नया
उद्यान बसाया।

जिनसे छिपता था सूरज
हर भोर चिढ़ाकर
अँधियारों की एक नई
दीवार बनाकर

उन अबलों ने अपने 
बल पर दीप जलाया।

कर्म-कलश ने हसरत से
खेतों को सींचा
नव-संकल्प, हथेली ने
मुट्ठी में भींचा

विजय फ़लक पर श्रम ने 
अपना ध्वज फहराया। 

-कल्पना रामानी

पुनः पधारिए


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धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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