बरखा रानी विदा हुई
दे नीर, समेट दुकूल।
मुखर हुआ माटी का कण-कण
खिले आस के फूल।
मानसून ने खूब दिया जल
सबको एक समान।
नदी, ताल, सागर, झरने या
हों बंजर मैदान।
जलधाराएँ झूम रहीं हैं
किलक रहे हैं कूल।
भोर भिगोती हवा सुगंधित
शीतल हुई दुपहरी
खेत-वनों बागों में
बिखरी
जीवन की स्वर लहरी
संध्या रानी बन दीवानी
झूल रही है झूल
मुखर हुईं गुपचुप कलियों
से
भँवरों की मनुहारें
भिगो रही तितली-फूलों को
बतरस की बौछारें
प्रेम-प्रणय की पींगें
भरता
मौसम है अनुकूल-कल्पना रामानी
No comments:
Post a Comment