रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Saturday 18 June 2016

और पिता तुम

 माँ होती है जाँ बच्चों की
और पिता! तुम माँ 
की जान।

माँ धरती, तुम आसमान हो
सन्तानें दोनों से पोषित।
देख फूलते-फलते हमको
सदय-सृष्टि भी होती हर्षित।

माँ पर करती गर्व गृहस्थी 
तुमसे यह घर स्वर्ग
समान। 

ठोस आवरण सिर्फ दिखावा
गुस्सा होता क्षणिक तुम्हारा।
बच्चों की हर ज़िद के आगे
है पितृत्व तुम्हारा हारा।

संवेदन का स्रोत तुम्हारे
हिय में रहता नित 
गतिमान।

हम सब माँ के साथ सुरक्षित
और सुरक्षा तुमसे रक्षित।
आँख उठाती जो भव-बाधा
आँख दिखा, कर देते बाधित।

पिता! तुम्हारी छत्र-छाँव ने   
हर चिंता का किया 
निदान।

परिणय, प्रेम, मिलन से जीवन
का हर दिवस सुमंगल होता।
मात-पिता के ऐक्य बिना तो
यह जग सारा जंगल होता।

पिता! कौन झुठला पाया है
विधना का यह रचित
विधान?

-कल्पना रामानी 

2 comments:

Maheshwari kaneri said...

बहुत सुन्दर

Maheshwari kaneri said...

बहुत सुन्दर

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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