माँ होती है
जाँ बच्चों की
और पिता! तुम
माँ
की जान।
माँ धरती, तुम आसमान हो
सन्तानें
दोनों से पोषित।
देख
फूलते-फलते हमको
सदय-सृष्टि भी
होती हर्षित।
माँ पर करती गर्व
गृहस्थी
तुमसे यह घर स्वर्ग
समान।
ठोस आवरण सिर्फ दिखावा
गुस्सा होता क्षणिक
तुम्हारा।
बच्चों की हर ज़िद के
आगे
है पितृत्व तुम्हारा
हारा।
संवेदन का स्रोत
तुम्हारे
हिय में रहता नित
गतिमान।
हम सब माँ के साथ
सुरक्षित
और सुरक्षा तुमसे
रक्षित।
आँख उठाती जो भव-बाधा
आँख दिखा, कर देते बाधित।
पिता! तुम्हारी
छत्र-छाँव ने
हर चिंता का किया
निदान।
परिणय, प्रेम, मिलन से जीवन
का हर दिवस सुमंगल
होता।
मात-पिता के ऐक्य बिना
तो
यह जग सारा जंगल होता।
पिता! कौन झुठला पाया है
विधना का यह रचित
विधान?
-कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर
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