बाँसूरी
में सुर न हो तो
प्राण, धुन कैसे
बुनेंगे?
जो
हुए तरुवर पुराने
छोड़ना
निज स्थान होगा
पौध-नूतन-जन्म
से ही
सर्व
का उत्थान होगा
अंकुरण
फिर-फिर न हों तो
फल
सरस कैसे
उगेंगे?
सुर
कहें यदि श्रेष्ठ हम ही
राग
का अपमान है ये
जानकर
अंजान बनता
क्योंकि
मन, नादान है ये
रागिनी
में रस न हो तो
साज़
फिर कैसे
बजेंगे?
है
ज़रूरी आरियाँ जानें
सुई
भी कीमती है
आम
है माना मधुर
गुणवान
कड़वा नीम भी है
काटने
की होड़ हो तो
बाँटने
कैसे
बढ़ेंगे?
बोलियाँ
लगती हुईं लख
है
व्यथित साहित्य सागर
दान
औ’ प्रतिदान की
खाली
पड़ी है आज गागर
यदि
जगह कागज़ न दे तो
क्यों
कलम के कर
चलेंगे?
-कल्पना रामानी
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