रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Sunday, 2 June 2013

सखि, नीम तले


सखि,चैत्र गया अब ताप बढ़ा।
धरती चटकी सिर सूर्य चढ़ा।
ऋतु के सब  रंग हुए गहरे।
जल स्रोत घटे जन जीव डरे।
फिर भी मन में इक आस पले।
चल पाँव धरें सखि, नीम तले।
 
इस मौसम में हर पेड़ झड़ा।
पर, मीत यही अपवाद खड़ा।
खिलता रहता फल फूल भरा।
लगता मन मोहक श्वेत हरा।
भर दोपहरी नित छाँव मिले।
चल झूल झुलें सखि, नीम तले।
 
यह पेड़ बड़ा सुखकारक है।
यह पूजित है वरदायक है।
अति पावन प्राणहवा इसकी।
मन भावन शीतलता इसकी।
इक दीप धरें हर शाम ढले।
चल, गीत गुनें सखि, नीम तले।
 
यह जान बड़े गुण हैं इसके।
नित सेवन पात करें इसके।
यह खूब पुरातन औषध है।
कड़वा रस शोणित-शोधक है।
हर गाँव शहर यह खूब फले।
हर रोग मिटे सखि नीम तले। 


-कल्पना रामानी

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--कल्पना रामानी

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