जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
चुन चुन पेड़ चीरती आरी
कल उसकी अब इसकी बारी
पंछी नीड़ यहाँ मत बाँधो।
यहाँ नहीं अधिकार तुम्हारा
तिनके तुम क्यों लेकर आए।
और नहीं दी घूस किसी को
तुम्हें सुरक्षा कौन दिलाए।
अगर हो गए घायल चूज़े
क्या होगा फिर साधो! साधो!
गाँव नहीं, यह शहर बंधुवर
कहर वनों पर आ टूटा है।
क्रूर कुटिलतम इन्सानों ने
वन जीवों का घर लूटा है।
जारी है चहुं ओर अतिक्रमण
निपट अकेले तुम हो माधो!
कहीं दूर उड़ जाओ पंछी
डालो किसी गाँव में डेरा।
जहाँ पेड़ हों, सुखद धूप हो
खेतों में जल अन्न घनेरा।
वहाँ तुम्हारा स्वागत होगा
पुरखों का यह शहर भुला दो।
-कल्पना रामानी
1 comment:
पर्यावरण के प्रति संवेदनाओं से भरा सुन्दर नवगीत।
Post a Comment