रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Thursday 12 September 2013

जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी













जंगल चीखा चली कुल्हाड़ी
चुन चुन पेड़ चीरती आरी
कल उसकी अब इसकी बारी
पंछी नीड़ यहाँ मत बाँधो।

यहाँ नहीं अधिकार तुम्हारा
तिनके तुम क्यों लेकर आए।
और नहीं दी घूस किसी को
तुम्हें सुरक्षा कौन दिलाए।

अगर हो गए घायल  चूज़े
क्या होगा फिर साधो! साधो!

गाँव नहीं, यह शहर बंधुवर
कहर वनों पर आ टूटा है।
क्रूर कुटिलतम इन्सानों ने
वन जीवों का घर लूटा है।

जारी है चहुं ओर अतिक्रमण
निपट अकेले तुम हो माधो!

कहीं दूर उड़ जाओ पंछी
डालो किसी गाँव में डेरा।
जहाँ पेड़ हों, सुखद धूप हो
खेतों में जल अन्न घनेरा।

वहाँ तुम्हारा स्वागत होगा
पुरखों का यह शहर भुला दो।

-कल्पना रामानी  

1 comment:

surenderpal vaidya said...

पर्यावरण के प्रति संवेदनाओं से भरा सुन्दर नवगीत।

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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