रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Saturday 6 February 2016

तज गर्जन घन, बरसो आओ!


दानी! अपना वचन निभाओ  
तज गर्जन घन बरसो!
आओ

नागफनी दे जहाँ दिखाई
वहाँ कभी तुम पाँव न रखना
कैद करें जो तुम्हें प्रलोभन
उनके घर का नमक न चखना

जड़ें बबूलों की बिसराकर
अमराई को अमिय
पिलाओ!

भेद भाव तो तुम्हें न आता
पर इतना मैं याद दिलाऊँ
दुआ माँगता जो कर जोड़े
उस किसान से आज मिलाऊँ

बस उसके हों खेत न प्यासे
इतना जल उसको
दे आओ

झील, ताल, सागर, नदियों से
मानसून भर हाथ मिलाना
धुआँधार सावन-अषाढ़ हों
तुम बस इतना देकर जाना

मानव से इतना कह जाना
दिया दान मत व्यर्थ
गँवाओ    

-कल्पना रामानी 

3 comments:

Smt. Mukul Amlas said...

सुंदर रचना ।

Smt. Mukul Amlas said...

सुंदर रचना ।

Anonymous said...

good
very nice

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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