फैल रहीं विषयुक्त हवाएँ।
है उदास, सहमा सा मौसम
आओ मित्रों पेड़
बचाएँ।
काँप रहे हैं बरगद पीपल
अमलतास का टूटा है बल।
गुलमोहर की बाहें बेदम
होकर ढूँढ रही हैं संबल।
हम इनको दुलराएँ चलकर
आँसू पोंछें धैर्य
बँधाएँ।
करें इस तरह कुछ तैयारी
पास न पहुँचे इनके आरी।
कातिल नज़र पड़े जो इनपर
बन जाएँ तलवार दुधारी।
करके रक्षित इन्हें आज हम
पर्यावरण विशुद्ध
बनाएँ।
वन करते लाखों का पोषण
रोकें अब हम उनका शोषण
जन-जन मन के भाव जगाकर
एक मंत्र दें, पौधारोपण।
अभी समय है मिलकर मित्रो
हरियाली से धरा
सजाएँ
- कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुन्दर नवगीत!
Very nice..
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