बदनसीबों को बसाकर गोद में,
ढँकती रहीं ये सीढ़ियाँ।
घाट से मंदिर तलक बढ़ते कदम,
तकती रहीं ये सीढ़ियाँ।
धूप, दीपक आरती
से, जाग जाती रोज़ प्रात।
दिन भजन करते मगन
औ’ बाँटतीं शामें प्रसाद।
शेष को भूखे नयन तरसा किए,
लखती रहीं ये सीढ़ियाँ।
मूर्तियों के सामने,
लगते रहे नित रत्न ढेर।
तिलक धारी चेहरे,
फलते रहे कुछ मंत्र टेर।
चंद सिक्के पुण्य पाने जो गिरे,
गिनती रहीं ये सीढ़ियाँ।
शंख बजते ही रहे,
बढ़ती रही भूखी कतार।
सीढ़ियों का दर्द से,
होता रहा दिल तार-तार।
देवता दृग मूँदकर सोते रहे,
जगती रहीं ये सीढ़ियाँ।
ख़ुदकुशी ये कर न पाईं,
छोडकर इतने अनाथ।
व्यग्र अंधी भीड़ में,
कोई नहीं था नेक हाथ।
सर्प सारे सिर उठा चढ़ते गए,
दबती रहीं ये सीढ़ियाँ।
--------कल्पना रामानी
No comments:
Post a Comment