फागुन आया, सघन वनों में
फिर से खिले पलाश।
ऋतु बसंत की हवा नशीली।
रवि किरणें कुछ स्वर्णिम पीली।
साथ लिए अंगार गोद में
मचल रही थी फिज़ा रंगीली।
दूर शहर से, देखा भू पर
स्वर्ग लोक का वास।
तान छिड़ी थी कुहू-कुहू की।
रटन अनोखी पिहू-पिहू की।
जल रंगों से वनज बेखबर
खेल रहे थे होली सूखी।
मंगल गाती रहीं दिशाएँ
संग धरा आकाश।
एक तरफ कचनार खड़े थे।
गुलमोहर भी बढ़े चढ़े थे।
लगता था कुदरत ने जैसे
फुर्सत में सब पात्र गढ़े थे।
हतप्रभ मन से सोच रही थी
रुक जाएँ पल काश!
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुंदर अहसास जगाती..!!
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