रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Thursday, 27 February 2014

फिर से खिले पलाश


फागुन आया, सघन वनों में
फिर से खिले पलाश।
 
ऋतु बसंत की हवा नशीली।
रवि किरणें कुछ स्वर्णिम पीली।
साथ लिए अंगार गोद में
मचल रही थी फिज़ा रंगीली।
 
दूर शहर से, देखा भू पर 
स्वर्ग लोक का वास।
 
तान छिड़ी थी कुहू-कुहू की।
रटन अनोखी पिहू-पिहू की।
जल रंगों से वनज बेखबर
खेल रहे थे होली सूखी।
 
मंगल गाती रहीं दिशाएँ
संग धरा आकाश।
 
एक तरफ कचनार खड़े थे।
गुलमोहर भी बढ़े चढ़े थे।
लगता था कुदरत ने जैसे
फुर्सत में सब पात्र गढ़े थे।
 
हतप्रभ मन से सोच रही थी
रुक जाएँ पल काश!

-कल्पना रामानी

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर अहसास जगाती..!!

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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