रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Saturday 4 January 2014

याद आ गया गुज़रा दौर














शॉल लपेटे चली सैर को
देखी आज अनोखी भोर।
 
ओस कणों से लॉन ढँका था।
सर्द हवा से काँप रहा था।
लेकिन दूर व्योम में हँसकर
सूर्य रश्मियाँ बाँट रहा था।

शायद किसी गाँव ने पल भर
झाँका आज शहर की ओर।
 
इमारतों के बीच झिरी थी।
कुछ कुछ धूप वहाँ बिखरी थी।
मगर न पहुँचे पाँव वहाँ तक
दीवारें ऊँची प्रहरी थीं।

हुआ सुखद एहसास ताप का
याद आ गया गुज़रा दौर।
 
भिनसारे थी धूप बुलाती।
दीवारों पर भी दिख जाती।

चलकर आती आँगन आँगन
 लँगड़ी, टप्पा, सात्या ताली
साथ खेलकर हमें रिझाती
खूब मचाते मिलकर शोर।
 
गाँवों की तब कदर न जानी।
कर बैठे अपनी मनमानी।
भुगत रहे परिणाम भुलाकर
शीतल छाया धूप सुहानी।

उद्यानों को स्वयं परोसा
खलिहानों के मुँह का कौर। 
  

-कल्पना रामानी

2 comments:

BijawarCourtandAdvocate said...

bahut khoob likha aap ne...

Neeraj Neer said...

बहुत सुंदर नवगीत आदरेया कल्पना जी ..॥

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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