शॉल लपेटे चली सैर को
देखी आज अनोखी भोर।
ओस कणों से लॉन ढँका था।
सर्द हवा से काँप रहा था।
लेकिन दूर व्योम में हँसकर
सूर्य रश्मियाँ बाँट रहा था।
शायद किसी गाँव ने पल भर
झाँका आज शहर की ओर।
इमारतों के बीच झिरी थी।
कुछ कुछ धूप वहाँ बिखरी थी।
मगर न पहुँचे पाँव वहाँ तक
दीवारें ऊँची प्रहरी थीं।
याद आ गया गुज़रा दौर।
भिनसारे थी धूप बुलाती।
दीवारों पर भी दिख जाती।
चलकर आती आँगन आँगन
लँगड़ी, टप्पा, सात्या ताली
साथ खेलकर हमें रिझाती
खूब मचाते मिलकर शोर।
गाँवों की तब कदर न जानी।
कर बैठे अपनी मनमानी।
भुगत रहे परिणाम भुलाकर
शीतल छाया धूप सुहानी।
उद्यानों को स्वयं परोसा
खलिहानों के मुँह का कौर।
-कल्पना रामानी
2 comments:
bahut khoob likha aap ne...
बहुत सुंदर नवगीत आदरेया कल्पना जी ..॥
Post a Comment