याद बहुत आता है मुझको
बचपन का संसार।
तब तुम मेरे प्रथम मीत थे
प्यारे हरसिंगार।
दूर रखा था हाथ छुअन से
परछाई से छाया करके
सदा बचाया धूप चुभन से।
बढ़े,खिले, झर उठे अँगन में
आई नई बहार।
कितने सुंदर वे दिन बीते।
थक जाती थी कलियाँ गिनते
कितनी रातें, कितनी बातें?
तुमसे की थीं चुनते चुनते।
कभी सजाए द्वार।
आ न सके तुम संग शहर में
उगा न पाई छोटे घर में।
समय गुज़रता रहा,खो गए
यादों की अंजान डगर में।
क्या थे हरसिंगार।
-कल्पना रामानी
4 comments:
आ न सके तुम संग शहर में,
उगा न पाई छोटे घर में।
वक्त गुज़रता रहा,खो गए,
यादों की अंजान डगर में।
नई पीढ़ियाँ पूछ रही हैं,
क्या थे हरसिंगार...
बहुत प्यारी रचना है...
कल्पना जी, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति | मेरे बचपन के घर में भी हर श्रृंगार की बेला थी | मैं उनके गहने बना कर खेलती थी | हर सुबह उन्हें इकट्ठा करना हम बच्चों का काम था |यह रचना पढ़ के सारे दृश्य याद आगये और मन भीग गया | भगवान आपकी कलम पर वरद हाथ रखे सदा |
bahut sundar abhivyakti kalpana didi ,
hamesha harsingar ne lubhaya hai , aur bachpan me bahut sare phool jama karke orange dandi tod kar rang aur kesar banati thi , uski khooshboo sada lubhati thi , aapke geet bahut sada lubhate hai harsingar se , sada aapke kushal swasth ki prarthana karti hoon , sneh aur saath hamara bana rahe , :)
कितने महके महके दिन थे,
थक जाती थी कलियाँ गिनते,
कितनी रातें, कितनी बातें,
तुमसे की थीं चुनते चुनते।
कभी चढाया शिव चरणों में,
कभी सजाए द्वार।
बहुत सुन्दर ख़ूबसूरत वर्णन
Post a Comment