ऊँचे पद के मद में जिनके
शहर चल दिये पाँव
नहीं चाहते कभी लौटना
वापस अपने गाँव ।
याद नहीं अब गाँव उन्हें जो
होते उनके जन्में।
फिर आने की मात-पिता को
देकर जाते कसमें।
नहीं लुभातीं आज उन्हें वो
धूल सँजोई गलियाँ।
और नहीं आसान छोडना
शहरों की रंगरलियाँ।
छोड़ चमाचम गाड़ी कैसे
चलें गली में पाँव।
फैशन भूल नए शहरों के
तितली सी बहुरानी।
भिनसारे उठ भर पाएगी
क्या वो नल से पानी?
शापिंग माल, शार्ट पहनावा
सजी-धजी गुड़िया सी।
कैसे जाए गाँव दुल्हनियाँ
बनकर छुई-मुई सी।
किटी पार्टियों की आदी क्यों
दाबे बूढ़े पाँव।
छोटे फ्लैट, मगर सुंदर हैं
टाउनशिप की बातें।
कामकाज में दिन कटते हैं
रंगबिरंगी रातें।
क्लब हाउस हैं, तरणताल हैं
सजी हुई फुलवारी।
भूल गए रिश्ते नातों की
परिभाषाएँ सारी।
अब तो गीत बचे गाँवों में
बचा गीत में गाँव।
-कल्पना रामानी
6 comments:
bdhiya kalpana ji sundar
"अब तो गीत बचे गांवों में,
बचा गीत में गाँव"
यूँ तो पूरा गीत ही बहुत अच्छा है कल्पना रामानी जी, परन्तु उपरोक्त पंक्तियों का तो कहना ही क्या है! बहुत प्यारी बन पड़ी हैं।
- शून्य आकांक्षी
बहुत सुन्दर कहानी .....अंतिम पंक्ति तो शानदार बनी है .....एक सार्थक सफल गीत हेतु बधाई कल्पना जी
अति सुंदर ।
अति सुंदर ।
अति सुंदर ।
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