शुद्ध हवा को लील रही हैं
ऊँची-ऊँची इमारतें।
घर तो बदल गए पिंजड़ों में
पंख कटे पंछी इंसान।
हवा विषैली नभ तक फैली
पंख पखेरू भी हैरान।
मानव ने ही स्वयं जुटाए
अपनी आफत के सामान।
थकी थकी सी इबारतें।
कल पुर्जों में बदली काया
है विज्ञान बना मोहरा।
विध्वंसों का निर्माणों पर
हावी हुआ घना कोहरा।
कान फाड़ता शोर असीमित
हर जन जीव हुआ बहरा।
करता मानव शिकायतें।
फैल गए शहरों के साए
सिकुड़ गई पेड़ों की छाँव।
फूलों वाले आँगन छूटे
छूट गए सपनों के गाँव।
बंजर भूमि, खेत असिंचित
छोड़ चल पड़े सबके पाँव।
विस्मित कुदरत पूछ रही है
क्यों ना मानी हिदायतें।
-कल्पना रामानी
1 comment:
फैल गये शहरोँ के साए
सिकुड़ गई पेड़ोँ की छाँव
फूलोँ वालेँ आँगन छूटे
छूट गए सपनोँ के गाँव
बहुत सुन्दर नवगीत ।
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