रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Friday, 26 October 2012

विस्मित कुदरत पूछ रही है











शुद्ध हवा को लील रही हैं
ऊँची-ऊँची इमारतें।
 
घर तो बदल गए पिंजड़ों में
पंख कटे पंछी इंसान।
हवा विषैली नभ तक फैली
पंख पखेरू भी हैरान।
मानव ने ही स्वयं जुटाए
अपनी आफत के सामान।

अब तो पोर पोर पर दिखतीं
थकी थकी सी इबारतें।
 
कल पुर्जों में बदली काया
है विज्ञान बना मोहरा।
विध्वंसों का निर्माणों पर
हावी हुआ घना कोहरा।
कान फाड़ता शोर असीमित
हर जन जीव हुआ बहरा।

फिर भी सूरज बादल से ही
करता मानव शिकायतें।
 
फैल गए शहरों के साए
सिकुड़ गई पेड़ों की छाँव।
फूलों वाले आँगन छूटे
छूट गए सपनों के गाँव।
बंजर भूमि, खेत असिंचित
छोड़ चल पड़े सबके पाँव।

विस्मित कुदरत पूछ रही है
क्यों ना मानी हिदायतें।
   

-कल्पना रामानी

1 comment:

surenderpal vaidya said...

फैल गये शहरोँ के साए
सिकुड़ गई पेड़ोँ की छाँव
फूलोँ वालेँ आँगन छूटे
छूट गए सपनोँ के गाँव

बहुत सुन्दर नवगीत ।

पुनः पधारिए


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--कल्पना रामानी

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