रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Thursday 7 April 2016

कुहुक रही होगी कोयलिया


सुनो सलोनी!
कहो सुनयना!
अंबुआ पर हैं फूटे कल्ले

छोड़ो मिर्च, ओखली, मूसल
ओढ़ दुपट्टा डालो चप्पल
मुखड़े को दर्पण दिखला दो
पोंछ पसीना बहता कलकल

दरवाजे पर
जड़ दो ताला
उड़काकर खिड़की के पल्ले

पेड़ों चढ़ी खुमारी होगी
डाल-डाल तन भारी होगी
अमराई के पोर-पोर पर
बौरों की फुलकारी होगी

कुहुक रही
होगी कोयलिया
चूस आम, रस भरे मुटल्ले

मौसम कुछ मदमाता होगा
गुन-गुन गीत सुनाता होगा
और धूप के हाथों में भी
शीत छाँव का छाता होगा 
  
नृत्य भांगड़ा
करता होगा
जाट बिजूखा, बल्ले बल्ले

करें आज कुछ अपने मन की
चलकर लुत्फ उठाएँ हम भी
अरी सलोनी, यों ही इक दिन
बेदम हो जाएगा दम ही

फिर तो वही
खिंचाई, खटपट
वही द्वार, घर, गली-मुहल्ले 

-कल्पना रामानी  

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--कल्पना रामानी

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