भेद की बातें
भुलाकर
नेह की बाती सजाकर
जीव-जग हित
ज्योत्सना का
एक दीपक हम
जलाएँ।
तोड़ सच का कोट, लंका
जोड़ ली है झूठ ने।
हँस रहे पापी
अँधेरे
रब लगा है रूठने।
दुर्ग दुष्टों का
ढहाकर
जय दिशा में पग
बढ़ाकर
कर्म-साधित कामना
का
एक दीपक हम
जलाएँ।
पर्व पर दिखते नहीं
अब
फुलझड़ी के कहकहे।
लोलुपों के साथ बेबस
बम-पटाखे रह रहे।
द्वेष दुविधा को जलाकर
प्रेम की बस्ती बसाकर
प्राण-पोषित
प्रार्थना का
एक दीपक हम
जलाएँ।
दूर है जिनसे
दिवाली
रुष्ट हैं जलते
दिये।
नेह-निष्ठा से
जुटाएँ
रोशनी उनके लिए।
मंत्र-मंशा गुनगुनाकर
देवि लक्ष्मी को
मनाकर
पुष्प-अर्पित
अर्चना का
एक दीपक हम
जलाएँ।
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुन्दर और सारगर्भित नवगीत।
Post a Comment