तपती देख धरा की काया।
गुल कनेर यादों में छाया।
प्यारा था वो गाँव सलोना।
भाता था फूलों का होना।
घर के सम्मुख गुलबगिया में,
था कनेर का भी इक कोना।
जिसके बहुरंगी फूलों ने,
सदा प्रकृति से प्रेम सिखाया।
भरे ग्रीष्म में छैल छबीले।
श्वेत, लाल, केसरिया, पीले।
बंजारे, बस जाते थे ये,
पुनः पेड़ पर बना कबीले।
इन अपनों से खेल खेल में,
झोली भर अपनापन पाया।
नानी थी जब कथा सुनाती।
विधि विधान के सूत्र
सिखाती।
गंध हवा में इन फूलों की,
घुलकर मृदु लोरी बन
जाती।
ख्वाबों में तब जुगनू
बनकर,
इन मित्रों ने था
बहलाया।
लगे आज कुदरत पर ताले।
पृष्ठ हुए कर्मों के काले।
वृहद वृक्ष लाकर गमलों
में,
ठूँस रहे हैं शहरों
वाले।
चुपके से ये कीट कर रहे,
घनी छाँव का क्रूर
सफाया।
-कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुन्दर
बहुत खूबसूरत नवगीत।
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