बालकनी के कोने मैंने
जब से रखी बाँस की कुर्सी
धूप बैठ इसपर खुश
होती
बरखा अपना मुखड़ा
धोती
शीत शॉल धरकर
विराजती
रैन बिछाकर तारे
सोती
हर मौसम ने बारी-बारी
छककर चखी, बाँस की कुर्सी
जब यह बाँस लचीला
होगा
इसको श्रम ने छीला
होगा
अंग-अंग में प्राण
पिरोकर
रंग दे दिया पीला
होगा
एक नज़र में मुझे भा गई
जिस दिन लखी, बाँस की कुर्सी
नित्य चाय पर मुझे
बुलाती
गोद बिठा सब्जी
कटवाती
घर भर को बहलाता
सोफा
यह मुझसे ही लाड़
लड़ाती
सुप्रभात! शुभ संध्या! कहती
मेरी सखी, बाँस की कुर्सी
-कल्पना रामानी
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