घड़ा
देखकर
प्यासा कौवा
चला चोंच में लेके
पत्थर
वो क्या जाने, पानी वाला
पुराकाल अब बीत
चुका है
जो घट अर्ध-भरा
होता था
अब पूरा ही रीत
चुका है
इस-युग
बेच रही है
बोतल, गली-गली
जल सील-बंद कर
ओस चाटकर सोई बगिया
तितली भटक रही है
प्यासी
औंधा बर्तन, बिखरे दाने
देख चिड़ी भी हुई
रुआँसी
बच्चों
का मुँह खुला
देखकर चुगा रही
नम खुरचन चुनकर
पशु-पक्षी सब सोच
रहे हैं
क्यों जलहीन हुआ जग
सारा
सबक सिखाएँ इस मानव
को
जिसने सोखा हलक
हमारा
काल
अनिश्चित
को बैठे सब, ताल
किनारे हैं अनशन पर -कल्पना रामानी
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