दिनचर्या के गुणा-भाग
से
रधिया ने नवगीत
रचा।
जाग, जगा प्रातः तारे को
प्रथम सँभाली कर्म-कलम
भरी विचारों की
स्याही
चल पड़ी उठा लयबद्ध
कदम
लेखा-जोखा घर-घर का
था
रहा हृदय में
द्वंद्व
मचा।
श्रम बूँदों के रहे
बिगड़ते-
बनते चित्र कवित्त
भरे
अक्षर-अक्षर रही
जोड़ती
रधिया रानी धीर धरे
धार-धार धुलते
भांडों पर
दो हाथों को नचा-
नचा।
ढला दिवस, खींची लकीर
पर गीत अधूरा है तब
तक
जोड़-तोड़ कर पूरा
होगा
घर का गणित नहीं जब
तक
लिख देगी अब रात
नींद ही
जो कुछ भी है शेष
बचा।
-कल्पना रामानी
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