रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Wednesday 4 March 2015

जाग उठी है जग में होली


फगुनाहट से जाग उठी है 
जग में होली।

रंग पलाशों से लेकर जन
हुए रँगीले।
साथ फब रहे लाल हरे,
केसरिया पीले।
सूखे को मुँह चिढ़ा रहे रंग
गीले हँसकर,
भंग चढ़ा पकवान हो गए
और रसीले।

पिचकारी पर फिदा हो रही,   
कोरी चोली।

मौसम बदला, नर्म हवा ने
पाँव पसारे।   
खारे जल के ताल हो गए
मीठे सारे।
चूस-चूस कर आम कोकिला
सुर में कुहकी
आए मिलने गले ज़मी से
चाँद सितारे। 

हुरियारों से होड़ ले रहे
ढम-ढम ढोली।

शहरों में डीजे गाँवों में
बजती पैंजन। 
देश हो कि परदेस,पर्व की
एक वही धुन। 
खेतों में सरसों खिलती
उद्यानों कलियाँ
कण कण में रस भर देता
सुखदाई फागुन।

आता संग धमाल शगुन की
भरकर झोली।

-कल्पना रामानी  

4 comments:

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान said...

achcha geet hai

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर.

Anonymous said...

बहुत ही सुंदर रचना। होली की आपको बधाई।

surenderpal vaidya said...

बहुत सुन्दर नवगीत।

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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