उगी पुनः नई सुप्रात तल्खियों के अंत की
ज़मीं पे आई व्योम
वेध पालकी
बसंत की।
फिज़ाओं में बहार के
अनेक रंग छा गए
हरेक पुष्प पेड़ ने
धरे वसन नए नए
उड़ा गुलाल ज्यों
खुली हो अंजुरी अनंत की
ज़मीं पे आई व्योम
वेध, पालकी
बसंत की।
दिखीं सुदूर
पीत-लाल
रश्मियाँ प्रकाश की
कि जंगलों में जी
उठी
पुनः प्रभा पलाश की
घुली दुआ दिगंत में
किसी फ़कीर-संत की
ज़मीं पे आई व्योम
वेध पालकी
बसंत की।
खिली धरा पे
चंद्रिका
बनी है गीत यामिनी
छिड़ी है बाग, बाग में
कली-मधुप की रागिनी
बनी रहें इनायतें
रसूल-दानवंत की
ज़मीं पे आई व्योम
वेध पालकी
बसंत की।
--कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुन्दर वासंती रंग में रंगी रचना ...
Post a Comment