रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Sunday 18 January 2015

हमें बुलाते बाग-बगीचे

 
सुबह-सुबह जब चिड़ियाँ गातीं
हमें बुलाते बाग
बगीचे। 

ले आता सूरज भी अपनी
धवल धूप का सुंदर टुकड़ा
साथ चमकता पथ जब चलता
कुसुमाकर दिखता हर मुखड़ा

नज़रों को देते नज़राना
हरीतिमा से गुंथे
गलीचे।

दिन में तो लटकाए रखते
ऊँचे खूँटे इमारतों के 
गीत रचा करती तन्हाई    
भूली बिसरी इबारतों के

लेकिन खुशबू वाले कुछ पल
हाथ थाम ले जाते
नीचे।

शहरी जीवन ने कुछ छीना
तो कुछ-कुछ उपकार भी किए
सुख-सुविधाओं के कोटे से
बहुतेरे अधिकार भी दिये

पर मन सोचेक्यों गाँवों का 
रस निचोड़  ये गुलशन  
सींचे। 

-कल्पना रामानी  

5 comments:

Kailash Sharma said...

बहुत ख़ूबसूरत प्रकृति चित्रण..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

Neeraj Neer said...
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Neeraj Neer said...

बहुत सुंदर नवगीत ....

Neeraj Neer said...
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Dr. VIJAY PRAKASH SHARMA said...

"गीत रचा करती तन्हाई"

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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