Thursday, 4 December 2014
रात आई रात रानी ख्वाब में
सो रही थी नींद में मैं बेखबर
रात आई रातरानी
ख्वाब में।
बंद खिड़की थी अचानक
खुल गई।
मंद सी खुशबू हवा में
घुल गई।
साथ उसके मन बना
पाखी उड़ा,
याद बीती, बन सखी
मिल जुल गई।
गंध बिछड़े गाँव की करके सफर
आ गई बरसों पुरानी
ख्वाब में।
बेफिकर थे वे दिवस
कितने भले।
बालपन, यौवन, पुलक
से थे पले।
छोड़ सबका साथ लोभी
शहर को
थी घड़ी मनहूस जब
घर से चले।
दिख रही थी चित्र सी मन पटल पर
वो सुहानी ज़िंदगानी
ख्वाब में।
चाँदनी ऋतु, आसमाँ
तारों भरा
और पुरखों से मिला
आँगन हरा
लहलहाते खेत, फसलें
स्वर्ण सी
छोड़ सब हमने चुना
यह पिंजरा।
कसमसाकर नींद टूटी, और फिर
खो गई वो रातरानी
ख्वाब में।
-कल्पना रामानी
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पुनः पधारिए
आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।
धन्यवाद सहित
--कल्पना रामानी
3 comments:
बहुत सुन्दर भावमयी रचना...
रचना बहुत सुन्दर और चित्ताकर्षक है.
वाह कल्पना दीदी , हमेशा की तरह सुन्दर नवगीत । नमन आपकी लेखनी को ।
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