उत्तर अंतर्ध्यान हो गए
ढूँढ रहा यह खोजी मन।
आविष्कार हुए बहुतेरे
तीनों लोक खँगाले गए।
कल-पुर्जों से धरा भर गई
भरे न पेट, निवाले गए।
दीपक तो हर छोर जल रहे
पर किस ओर उजाले गए?
किसने अंजुलि भर हाथों से
किया देश हित का तर्पण?
किसने काटे पर चिड़िया के
डाली डाली पूछ रही।
किसके उदर समाया सोना
क्यों अब तक है भूख वही।
कहाँ गए भंडार धान्य के
धरती ही क्या निगल गई?
बंजर करके गाँव, शहर क्यों
ले गए उनका चंदन वन।
आज क्यों नहीं अपनी भाषा
भावों से वो प्यार रहा।
अपनी ही सुंदर संस्कृति से
सौतेला व्यवहार रहा।
उत्तर ढूँढो, उठो सपूतों
तुमको समय पुकार रहा
हिन्दी की देसी क़िस्मों में
क्यों लग गया विदेशी घुन।
-कल्पना रामानी
1 comment:
बहुत सुन्दर और सार्थक गीत...
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