रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Sunday 7 December 2014

उत्तर अंतर्ध्यान हो गए


उत्तर अंतर्ध्यान हो गए
ढूँढ रहा यह खोजी मन
 
आविष्कार हुए बहुतेरे
तीनों लोक खँगाले गए
कल-पुर्जों से धरा भर गई
भरे पेट, निवाले गए
दीपक तो हर छोर जल रहे
पर किस ओर उजाले गए?
 
किसने अंजुलि भर हाथों से
किया देश हित का तर्पण?
 
किसने काटे पर चिड़िया के
डाली डाली पूछ रही 
किसके उदर समाया सोना
क्यों अब तक है भूख वही
कहाँ गए भंडार धान्य के
धरती ही क्या निगल गई?
 
बंजर करके गाँव, शहर क्यों
ले गए उनका चंदन वन
 
आज क्यों नहीं अपनी भाषा
भावों से वो प्यार रहा
अपनी ही सुंदर संस्कृति से
सौतेला व्यवहार रहा
उत्तर ढूँढो, उठो सपूतों
तुमको समय पुकार रहा
 
हिन्दी की देसी क़िस्मों में
क्यों लग गया विदेशी घुन

-कल्पना रामानी

1 comment:

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और सार्थक गीत...

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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