व्याकुल हुआ तरसता मन।
रिश्तों की जो बेलें सूखीं
कर दो फिर से हरी भरी।
मन आँगन में पड़ी दरारें
घन बरसो, हो जाय तरी।
सिंचित हो जीवन की धरती।
ले आओ ऐसा सावन।
दूर दिलों से बसी बस्तियाँ
भाव शून्यता गहराई।
सरस सुमन निष्प्राण हो गए
नागफनी ऐसी छाई।
बूँद-बूँद में हो बहार सी
बरसाओ वो अपनापन।
उपजाऊ हो मन की माटी
हर फुहार ऐसी लाओ।
सौंधी खुशबू उड़े प्रेम की
मेघराज जल्दी आओ।
पुनः पल्लवित हो जीवन में
शुष्क हुआ जो अंतरमन।
-कल्पना रामानी
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