लदे बौर, शाखें सजीं
सुरभित अमराई।
ऋतु बसंत आई।
कोयल कुहकी बाग में
आम्रकुंज महका।
मधुरिम रसित सुगंध से
विहग वृंद बहका।
पुष्प लताओं का जिया
झूम-झूम लहका।
पवन बसंती गा उठी
गूँजी शहनाई।
खूब सुना है बसंत में
टेसू खिलते हैं।
गुलमोहर, कचनार के
सुमन सँवरते हैं।
विजन वनों की गोद में
विचरण करते हैं।
मिलने को बेचैन थी
वन को मैं धाई।
अहा धरा! यह किस तरह
तूने रूप धरा।
वासंती शृंगार से
शोभित हर ज़र्रा।
तुझे निरखने व्योम से
देवलोक उमड़ा।
कुदरत बन ज्यों अप्सरा
यहाँ उतर आई।
-कल्पना रामानी
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