बिखर चुकी है बेबस कमली
खोकर अपनी खरी कमाई।
मुद्दत से करती आई वो
एक बड़े घर के सब काम।
पा जाती थी रूखी-सूखी
त्यौहारों पर अलग इनाम।
आज न जाने किस गुमान में
पहुँच गई वो बिना नहाई।
जल विहीन घट रहते अक्सर
नल से बूँदें
अंतर्ध्यान।
कभी प्यास से कण्ठ सूखते
कभी छूटता वांछित स्नान।
काले तन पर मैली धोती
देख मालकिन थी गुर्राई।
रूठी किस्मत, टूटी हिम्मत
ध्वस्त हुए कमली के
ख्वाब।
काम गया, क्या दे पाएगी
बच्चों को वो सही जवाब?
लातों से अब होगी खिदमत
मुआ मरद है क्रूर कसाई।
रहे बदलते शासक लेकिन
शासन का अंदाज़ वही।
सावन बँटता बड़े घरों में
है गरीब पर गाज वही।
घुटती रहती हर कमली पर
शर्म समर्थों को कब आई।
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