रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

मेरे बारे में
कल्पना रामानी

Wednesday 29 May 2013

सूर्य देवा!









सूर्य देवा!
लाँघना कुछ सोचकर
इस गाँव की चौखट। 
 
बढ़ रहे
तेवर तुम्हारे
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर
चला जल भाप बन आकाश में।

देव! है स्वागत तुम्हारा
ध्यान हो लेकिन हमारा
बाँध लेनाप्रथम अपनी 
आग सी किरणों की 
बिखरी लट।
 
मौन हैं
प्यासे दुधारू 
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं
नज़र में याचना की गंध है।

शेष जल यदि तुम निगल लो
गागरी उदरस्थ कर लो
अन्नपूर्णा! किस तरह झेले 
भला तन सोखता 
संकट।
 
ले गए
लोलुप हमारी
शहर नदिया मोड़कर।
तन यहाँ तर स्वेद से
जल से हैं तर वे बेखबर। 

तुम सखा यह याद रखना
गाँव में शुभ पाँव धरना
सुर्ख मुख पर बादलों का 
ओढ़कर,बस हाथ भर 
घूँघट।
   

-कल्पना रामानी

2 comments:

पूर्णिमा वर्मन said...

जबरदस्त नवगीत है कल्पना जी, शिल्प तो सुंदर है ही, आस्था और आदेश का भी अद्भुत प्रयोग हुआ है। बहुत खूब, बहुत खूब !!

surenderpal vaidya said...

बहुत ही सुन्दर नवगीत।
हार्दिक शुभकामनाएं कल्पना जी।

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

Followers