बहुत दिनों के बाद आज माँ,
रोटी की फिर याद आई है।
कल भी तूने प्याज दिया था।
परसों बस जल घूँट पिया था।
कई दिनों तक सूखे टुकड़े,
भिगो भिगो कर स्वाद लिया था।
बात मगर वो भूल गया हूँ,
रोटी किस दिन हाथ आई है।
माँ, क्यों नहीं हमारे घर में,
रोज़ रोज़ रोटी बनती है?
बस डिब्बों को खोल खोल कर,
बचे हुए दाने गिनती है।
महँगाई क्या होती है माँ?
इस घर के क्यों पास आई है।
कहती तो है, मेरे चंदा!
चंदा जैसी रोटी दूँगी।
जिस दिन जैसा चाँद दिखेगा,
उस दिन उतनी मोटी दूँगी।
आज दिखेगा बड़ा चंद्रमा,
कहती बस यह बात आई है।
कब तक चने चबाऊँगा माँ?
कब तक सत्तू खाऊँगा मैं।
क्या यूँ ही भूखे रह रह कर,
कभी बड़ा हो पाऊँगा मैं?
गोल चाँद की रात आई है।
"हौसलों के पंख" से सर्वाधिकार सुरक्षित
-----कल्पना रामानी
1 comment:
very nice Kalpna ji. badhaai.
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