रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Thursday, 27 September 2012

गोल चाँद की रात


















बहुत दिनों के बाद आज माँ,
रोटी की फिर याद आई है।
 
कल भी तूने प्याज दिया था।
परसों बस जल घूँट पिया था।
कई दिनों तक सूखे टुकड़े,
भिगो भिगो कर स्वाद लिया था।
 
बात मगर वो भूल गया हूँ,
रोटी किस दिन हाथ आई है।
 
माँ, क्यों नहीं हमारे घर में,
रोज़ रोज़ रोटी बनती है?
बस डिब्बों को खोल खोल कर,
बचे हुए दाने गिनती है।
 
महँगाई क्या होती है माँ?
इस घर के क्यों पास आई है। 
 
कहती तो है, मेरे चंदा!
चंदा जैसी रोटी दूँगी।
जिस दिन जैसा चाँद दिखेगा,
उस दिन उतनी मोटी दूँगी।
 
आज दिखेगा बड़ा चंद्रमा, 
कहती बस यह बात आई है।
 
कब तक चने चबाऊँगा माँ?
कब तक सत्तू खाऊँगा मैं।
क्या यूँ ही भूखे रह रह कर,
कभी बड़ा हो पाऊँगा मैं?


कब बोलेगी, बतला दे माँ!
गोल चाँद की रात आई है।


"हौसलों के पंख" से  सर्वाधिकार सुरक्षित
-----कल्पना रामानी






1 comment:

sharda monga (aroma) said...

very nice Kalpna ji. badhaai.

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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