रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Monday 23 July 2012

यदि पलाश तुम शहर में होते











गर पलाश, तुम शहर में होते
सबके नूर नज़र में होते।
 
तुमको तो निर्जन वन भाया,
एक अनोखा जीवन पाया।
तपी धूप से प्रीत तुम्हारी,
गर्मी में ही जीत तुम्हारी।
अंगारों सा रूप दहकता,
कानन का हर छोर महकता।
आँगन में गर तुम आ जाते,
मन की लहर लहर में होते।
 
जब बसंत का मौसम आता,
होली का त्यौहार बुलाता।
चल देते सबका मन धोने,
रंगों से हर अंग भिगोने।
मैं खिड़की से झाँका करती,
सुख कुदरत से साझा करती।
पर्व मनाते, संग हमारे,
सबके साथी सहचर होते।
 
गुलमोहर करता गलबहियाँ,
मुस्कातीं कचनारी कलियाँ।
सारे सुमन संग मिल जाते,
रंग फिज़ाओं में घुल जाते।
स्वागत करती आम्र मंजरी,
दिश-दिश से आती स्वर लहरी।
मुग्ध कोकिला तान छेड़ती।
मिले हमारे भी स्वर होते।


-----------कल्पना रामानी

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--कल्पना रामानी

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