जिनसे जुड़तीं कई इमारतें
जुड़े हुए फुटपाथों से।
ये मजदूर निरे मतवाले
यहाँ वहाँ हैं ड़ेरा डाले।
कुछ रुपयों की मिले दिहाड़ी
जुट जाते हैं चंद निवाले।
दिन भर बोझ तगारी ढोते
चैन जुड़ा है रातों से
क्या किस्मत दीनों ने पाई
गिरें पड़ें तो राम दुहाई।
साँसें बंधक,
मरते दम तक
दौलत से तुलती भरपाई।
शोषण से शोणित का रिश्ता
गठबंधन है घातों से।
जंग लगे शासन के पुर्जे
अंधा है कानून नकारा।
न्याय दलीलों के दर दाखिल
बेकसूर हर बाज़ी हारा।
फिट करते सब अपनी गोटी
फुरसत किसे बिसातों से।
-कल्पना रामानी
1 comment:
'सांसे बंधक ' युगों से कौन होगा जिम्मेदार ।
इनकी दुर्गति मे बसती भारत की तेज रफ्तार ।
मरें जियें रिश्ता नहीं मानव सम केवल कर्मकार।
शोषक वर्ग पनपे हर पल नही शासन जिम्मेदार ।।
छगन लाल गर्ग ।
सामयिक दर्द झेलती अभिव्यक्ति सुंदर ।बधाई कल्पना जी।
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