बने रहें ये दिन बसंत के
गीत कोकिला गाती
रहना।
मंथर होती गति जीवन की
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।
देखो जोग न ले अमराई
उससे प्रीत जताती
रहना।
बोल तुम्हारे सखी घोलते
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती
समय ठहर जाता बंजारा।
झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे
तुम प्रकाश बन आती
रहना।
जब फागुन के रंग उतरकर
होली जन-जन संग मनाएँ।
मिलकर सारे सुमन प्राणियों
के मन स्नेहिल भाव जगाएँ।
तब तुम अपनी कूक-कूक से
जय उद्घोष गुँजाती
रहना।
-कल्पना रामानी
1 comment:
सुन्दर, मधुर रचना .प्रशंसनीय भावाभिव्यक्ति .
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