गर्दिशों के भूलकर शिकवे गिले,
फिर उमंगों के चलो नवगीत गाएँ।
प्रकृति आती
रोज़ नव शृंगार कर।
रूप अनुपम, रंग उजले
गोद भर।
जो हमारे हिय छुपा है चित्रकार,
भाव की ले तूलिका उसको जगाएँ।
झोलियाँ भर
ख़ुशबुएँ लाती हवा।
मखमली जाजम बिछा
जाती घटा।
ख़्वाहिशों के, बाग से चुनकर सुमन,
शेष शूलों की चलो होली जलाएँ।
नित्य खबरें
क्यों सुनें खूँ से भरी।
क्यों न उनकी काट दें
उगती कड़ी।
लेखनी ले हाथ में नव क्रांति की,
हर खबर को खुशनुमा मिलकर बनाएँ।
देख दुख, क्यों
हों दुखी, संसार का।
पृष्ठ कर दें बंद क्यों ना
हार का।
खोजकर राहें नवल निस्तार की,
जीत की अनुपम, नई दुनिया बसाएँ।
-----कल्पना रामानी
3 comments:
बहुत ही लाज़वाब गीत
एक नया जोश-जज़्बा जगाती हुई।
''पृष्ट क्यूँ न बंद कर दें हार का
खोज़ कर राहें नवल निस्तार की
जीत की अनुपम नई दुनिया बसायें।
………आपको प्रणाम आदरणीय और आपकी लेखनी को नमन
एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''कोई न सुनता उनको है, 'अभी' जो बे-सहारे हैं''
वाह !!! बहुत ही सुंदर एवं सारगर्भित लाज़वाब गीत
एक नज़र--शब्दों की मुस्कुराहट
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