रचना चोरों की शामत

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कल्पना रामानी

Saturday, 22 March 2014

कैसे बीते काले दिन

ज़रा पूछिए इन लोगों से,
कैसे बीते काले दिन।
फुटपाथों की सर्द सेज पर,
क्रूर कुहासे वाले दिन।
 
सूरज, जो इनका हमजोली,
वो भी करता रहा ठिठोली।
तहखाने में भेज रश्मियाँ,
ले आता कुहरा भर, झोली।
 
गर्म वस्त्र तो मौज मनाते,
इन्हें सौंपते छाले दिन।
 
दूर जली जब आग देखते,
नज़रों से ही ताप सेंकते
बैरन रात न काटे कटती,
गात हवा के तीर छेदते।
 
इन अधनंगों ने गठरी बन,
घुटनों बीच सँभाले दिन।
 
धरा धुरी पर चलती रहती,
धूप उतरती चढ़ती रहती।
हर मौसम के परिवर्तन पर,
कुदरत इनको छलती रहती।
 
ख्वाबों में नवनीत इन्होंने,
देख, छाछ पर पाले दिन।

---------कल्पना रामानी  

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

वाह !!! बहुत ही सुंदर एवं सारगर्भित रचना....

Pawan Singh Baish said...

वाह्ह्ह् ... आपके गीतों की बात ही अलग है।
बेहतरीन!
नमन आपको

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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