रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Thursday, 26 December 2013

शुभारंभ है नए साल का

फिर से नई कोपलें फूटीं
खिला गाँव का बूढ़ा बरगद।
शुभारंभ है नए साल का
सोच-सोच है मन 
में गदगद

आज सामने, घर की मलिका
को उसने मुस्काते देखा।
बंद खिड़कियाँ खुलीं अचानक
चुग्गा पाकर पाखी चहका। 

खिसियाकर हो गया व्योम से
कोहरा जाने कहाँ 
नदारद।

खबर सुनी है उस देहरी पर
फिर अपनों के कदम पड़ेंगे।
प्यारी सी मुस्कानों के भी
कोने कोने बोल घुलेंगे।
 
स्वागत करने डटे हुए हैं
धूल झाड़कर चौकी- 
मसनद।
 
लहकेगी तुलसी चौरे पर
चौबारे चौपाल जमेगी।
नरम हाथ की गरम रोटियाँ
बहुरानी सबको परसेगी।
 
पिघल-पिघल कर बह निकलेगा
दो जोड़ी नयनों- 
से पारद।
 
बरगद के मन द्वंद्व छिड़ा है
कैसे हल हो यह समीकरण।
रिश्तों का हर नए साल में
हो जाता है बस नवीकरण।
 
अपने चाहे दुनिया छोड़ें
नहीं छूटता पर 
ऊँचा पद।

-कल्पना रामानी  

2 comments:

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...



बरगद के मन द्वंद्व छिड़ा है,
कैसे हल हो यह समीकरण।
रिश्तों का हर नए साल में,
हो जाता है बस नवीकरण।

अद्भुत लेखन।

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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